About Puja
जातक का जब समावर्तन संस्कार विधि पूर्वक सम्पादित कर दिया जाता है उसके पश्चात् ही विवाह संस्कार का विधान है । मनुष्य को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने के लिए विवाह की अनिवार्यता होती है। गृहस्थ आश्रंम सभी आश्रमों में सभी से श्रेष्ठ एवं उत्तम है इसलिए गृहस्थ आश्रम को सभी आश्रमों का संरक्षणकर्ता बतलाया गया है ।
आचार्य मनु उल्लेख करते हैं की २५ वर्ष की आयु में विवाह संस्कार सम्पादित करना चाहिए तत्पश्चात् गृहस्थधर्म का विधिपूर्वक पालन करना चाहिए । दक्षस्मृति के अनुसार 'त्रयाणामाश्रमाणां तु गृहस्थो योनिरुच्यते' गृहस्थ आश्रम को तीनों आश्रमों का कारण बतलाया गया है। समाज में जिस प्रकार सभी एक दुसरे पर परस्पर आश्रित होते हैं उसी प्रकार सभी धर्म,संप्रदाय एवं आश्रम गृहस्थधर्म पर ही निर्भर होते हैं। जिस प्रकार सभी आश्रमों का आधार गृहस्थ आश्रम है उसी प्रकार स्त्री(पत्नी) भी गृहस्थ आश्रम का मूल है।
नगृहं गृहमित्याहुर्गृहिणीगृहमुच्यते।
गृहस्थः स तु विज्ञेयो गृहे यस्य पतिव्रता ।।
गृह में पत्नी (जीवनसंगिनी) होने के कारण ही गृह को गृह की संज्ञा से विभूषित किया गया। विवाह संस्कार, वर एवं वधू के मध्य नूतन और पवित्र सम्बन्ध स्थापित करता है, जो अग्नि और देवताओं को साक्षी सम्बन्ध स्थापित किया जाता है । आधुनिक द्रष्टिकोण से यदि हम विवाह संस्कार पर विचार करें तो यह हमें एक सामाजिक उत्सव के स्वरुप में प्रतीत होता है, परन्तु यह संस्कार आध्यात्मिक दृष्टिकोण से वैदिक अर्थात् वेदों में प्रतिपादित, सभी मर्यादाओं को स्थापित करने वाला संस्कार है। गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने के पश्चात् सन्तान उत्पत्ति के द्वारा पितृऋण से मुक्ति और इसके साथ ही नियमबद्ध जीवनचर्या, सुआचरण, अतिथि सत्कार तथा जीवों की देवा करते हुए आत्मउद्धार या आत्मकल्याण रूप साधन में सार्थक सिद्ध होता है। लौकिक इच्छाओं की समाप्ति, आध्यात्मिकता की प्राप्ति तथा सामाजिक कर्त्तव्य का ज्ञान कराना ही विवाह संस्कार का उद्देश्य है ।
पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति के लिए विवाह संस्कार अत्यंत आवश्यक है एतदर्थ इस संस्कार की विशेष महिमा का वर्णन भी किया गया है । वर और कन्या विवाह के पश्चात् ही पूर्णता को प्राप्त करते हैं । वैदिक विधि के माध्यम से जब शुद्ध एवं स्पष्ट विवाह संस्कार सम्पादित किया जाता है तो शारीरिक और मानसिकरूप से संस्कार का प्रभाव दोनों पर देखने को मिलता है । भारतीय सनातन वैवाहिक प्रक्रिया पूर्वजन्म के एवं भविष्य के भी सम्बन्ध को (सात जन्मों का रिस्ता) स्वीकार करती है। विवाह के पश्चात् पत्नी पतिव्रत का और पति पत्नीव्रत का संकल्पपूर्वक पालन करता है। विवाह बाद कन्या को भार्या एवं वर को पति की संज्ञा प्राप्त होती है।
Process
विवाह संस्कार में प्रयोग होने वाली विधि :-
- मण्डपस्थापन
- हरिद्रालेपन तथा कंकण बन्धन (षड् विनायक पूजन)
- दक्षिणा सङ्कल्प एवं भोजन सङ्कल्प
- स्वस्तिवाचन गणेशस्मरण एवं पूजन
- प्रायश्चितसङ्कल्प (रजोदर्शन दोष परिहार सङ्कल्प )कन्या का
- प्रायश्चित सङ्कल्प (अतीत संस्कारजन्य दोष परिहार सङ्कल्प ) वर का
- पञ्चाङ्ग पूजन प्रतिज्ञा सङ्कल्प
- गणेशाम्बिका पूजन
- कलशस्थापन, पुण्याहवाचन, नवग्रह पूजन, मातृकापूजन वसोर्धारा पूजन, आयुष्य मन्त्र जप, नान्दीश्राद्ध अभिषेक आदि
- लोकाचार (मातृभाण्डस्थापन एवं मातृका पूजन) कोहबर में
- द्वारमातृका पूजन
- षोडश मातृका स्थापन एवं पूजन, सप्तघृतमातृका पूजन घृतधाराकरण
टिप्पणी :- विवाह से पूर्व कन्या और वर के यहां मण्डप में ये पूजन होते हैं।
बारात प्रस्थान:-
- अश्वारोहण(परिछन)
- द्वारपूजा (स्वस्तिवाचन, गणपति गौरी पूजन, कलश स्थापन, नवग्रह, षोडश मातृका आदि का आवाहन एवं पूजन)
- वर का पूजन (पादप्रक्षालन, तिलक, अक्षत, माल्यार्पण)
- वस्त्रादि का वर के लिए सङ्कल्प,दक्षिणा सङ्कल्प, विष्णुस्मरण
- कन्यावरण (लोकाचार)
- वर के भ्राता द्वारा मण्डप में देवों का पूजन
- कन्या द्वारा गणेश, ओंकार, लक्ष्मी एवं कुबेर का पूजन
- कन्या निरीक्षण
- तागपाट परिधान
- वस्त्रादि प्रदान
- कन्या को आशीर्वाद प्रदान
- रक्षाविधान, (रक्षाबन्धन)
विवाह विधान प्रारम्भ:-
- विवाह विधान
- वर का तिलक करण
- उपानह त्याग
- वर के प्रति निवेदन
- विष्टर प्रदान, पाद्यप्रदान, दाता द्वारा पाद प्रक्षालन,अक्षतधारण, पुष्पमालाधारण, पुनः विष्टरदान अर्घ्य प्रदान आचमनीय जल प्रदान, मधुपर्क प्रदान विधि।
- अङ्गों का स्पर्श, गौ स्तुति
- गोदान आचार,पञ्चभूसंस्कार
- अग्निस्थापन (योजक नामक अग्नि)
- कन्या का आनयन
- वस्त्रचतुष्टयप्रदान
- कन्या पूजन
- वर का वस्त्रधारण, यज्ञोपवीत धारण
- कन्या का सम्मुखीकरण
- ग्रन्थिबन्धन
- शाखोच्चार या गोत्रोच्चार वरपक्षीय प्रथम शाखोच्चार (वेदमन्त्र, मङ्गलश्लोक, गोत्रोच्चार)
- कन्यापक्षीय प्रथमशाखोच्चार (वेदमन्त्र, मङ्गलश्लोक,गोत्रोच्चार)
- वरपक्षीय द्वितीय गोत्रोच्चार (वेदमन्त्र,मङ्गलश्लोक,शाखोच्चार)
- कन्यापक्षीय द्वितीय शाखोच्चार (वेदमन्त्र, मङ्गलश्लोक, शाखोच्चार)
- वरपक्षीय तृतीय शाखोच्चार ( वेदमन्त्र, मङ्गलश्लोक, शाखोच्चार)
- कन्यापक्षीय तृतीय शाखोच्चार (वेदमन्त्र, मङ्गलश्लोक, शाखोच्चार)
- कन्यादान विधि, प्रार्थना , प्रतिज्ञा सङ्कल्प
- वर से प्रार्थना
- कन्यादान का प्रधान सङ्कल्प
- कन्यादान सांगता, गोनिष्क्रय द्रव्य वर को
- गौ प्रार्थना, भूयसी दक्षिणा सङ्कल्प
- दृढ़ पुरुष स्थापना, परस्पर निरीक्षण, दक्षिणा सङ्कल्य
विवाह होम:-
- आचार्यवरण, आचार्य की प्रार्थना
- ब्रह्मवरण, ब्रह्म की प्रार्थना
- कुश कण्डिका, पात्रासादन
- हवन विधान, आधाराज्य होम, महाव्याहृति होम
- सर्वप्रायश्चित्त होम
- राष्ट्रभृत होम
- जया संज्ञक होम
- अभ्यातन होम
- आज्य होम
- अन्तः पट हवन
- लाजाहोम
- सांगुष्ठहस्तग्रहण
- अश्मारोहण
- गाथागान
- अवशिष्ट लाजाहोम, चौथी परिक्रमा
- प्राजापत्य हवन
- सप्तपदी
- सप्तपदी श्लोक उपदेश (कन्या का वर के प्रति सात वचन)
- वर का कन्या के प्रति पाँच वचन
- एक महत्वपूर्ण वचन
- जलाभिषेक
- सूर्यदर्शन
- ध्रुव दर्शन
- हृदयालम्भन
- सुमंगली (सिन्दूरदान)
- सिन्दूर करण ( मांग बहोरन)
- ग्रन्थिबन्धन
- गुप्तागार गमन
- स्विष्टकृत हवन
- संस्रवप्राशन
- मार्जन
- पवित्रप्रतिपत्ति
- पूर्णपात्र दान
- प्रणीता विमोक
- मार्जन
- बहिहोम
- त्र्यायुष्करण
- अभिषेक
- दुर्वाक्षतारोपण
- गणेश आदि आवाहित देवों का वर वधू के द्वारा संक्षेप में पूजन
- आचार्य दक्षिणा
- ब्राह्मण भोजन सङ्कल्प, भूयसी दक्षिणा, विष्णु स्मरणम्
Benefits
विवाह संस्कार पूजा के कई लाभ होते हैं, जो दंपत्ति के जीवन को सुखमय और सफल बनाने में मदद करते हैं। इन लाभों में प्रमुख निम्नलिखित हैं:
- सुखी वैवाहिक जीवन :- विवाह संस्कार पूजा से जीवनसाथी के साथ प्रेम, समझ और विश्वास बढ़ता है, जिससे वैवाहिक जीवन सुखमय और शांतिपूर्ण बनता है।
- समाज में सम्मान :- विवाह संस्कार व्यक्ति को समाज में एक सम्मानित स्थान प्रदान करता है, क्योंकि यह पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों का पालन करने का प्रतीक है।
- धार्मिक दृष्टिकोण से पवित्रता :- विवाह संस्कार को शास्त्रों और धार्मिक विधियों के अनुसार संपन्न किया जाता है, जिससे व्यक्ति का जीवन धर्म और आस्था से परिपूर्ण रहता है।
- परिवार में समृद्धि :- विवाह संस्कार के दौरान होम (हवन) और अन्य धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं, जो परिवार में समृद्धि, खुशहाली और शांति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
- संतान सुख :- विवाह संस्कार के दौरान मंत्रोच्चारण और हवन से संतान सुख की प्राप्ति की कामना की जाती है, जिससे दंपत्ति को संतान सुख मिलता है।
- सप्तपदी :- इस क्रिया विशेष के द्वारा परस्पर एक दूसरे के प्रति प्रेम और मित्र सम्बन्ध की स्थिति में वृद्धि होती है। वर और वधु दोनों एक दूसरे के अनुकूल रहने का संकल्प करते है।
- ध्रुव, अरुन्धती एवं सप्तर्षि के दर्शन से सम्बन्ध की दृढता तथा पतिव्रत की प्रेरणा प्राप्त होती है।
Puja Samagri
रोली, कलावा, सिन्दूर, लवङ्ग, इलाइची, सुपारी , हल्दी, अबीर ,गुलाल, अभ्रक ,गङ्गाजल, गुलाबजल ,इत्र, शहद ,धूपबत्ती,रुईबत्ती, रुई ,यज्ञोपवीत, पीला सरसों ,देशी घी, कपूर ,माचिस, जौ ,दोना बड़ा साइज,पञ्चमेवा , सफेद चन्दन, लाल चन्दन ,अष्टगन्ध चन्दन, गरी गोला ,चावल(छोटा वाला), दीपक मिट्टी का, सप्तमृत्तिका, सप्तधान्य, सर्वोषधि, पञ्चरत्न, मिश्री ,पीला कपड़ा सूती,काला तिल, चावल, कमलगट्टा,हवन सामग्री, घी,गुग्गुल, गुड़ (बूरा या शक्कर), पान पत्ता, बलिदान हेतु पापड़, काला उडद , हवन कुण्ड ताम्र का 10/10 इंच या 12/12 इंच , नवग्रह समिधा, हवन समिधा , घृत पात्र, कुश, वेदी निर्माण के लिए चौकी 2/2 का – 1, गाय का दूध - 100ML, दही - 50ML, मिष्ठान्न आवश्यकतानुसार, फल विभिन्न प्रकार ( आवश्यकतानुसार ), दूर्वादल (घास ) - 1मुठ, पान का पत्ता – 05, पुष्प विभिन्न प्रकार - 2 kg, पुष्पमाला -5( विभिन्न प्रकार का), आम का पल्लव – 2, थाली - 2 , कटोरी - 5 ,लोटा - 2 , चम्मच - 2 आदि , अखण्ड दीपक -1, तांबा या पीतल का कलश ढक्कन सहित , पानी वाला नारियल, देवताओं के लिए वस्त्र - गमछा , धोती आदि , बैठने हेतु दरी,चादर,आसन , गोदुग्ध,गोदधि ।