About Puja
अन्नप्राशन संस्कार का अर्थ है "अन्न का सेवन" । शिशु को प्रथम बार शुद्ध, सात्विक एवं स्वादिष्ट अन्न ग्रहण कराया जाता है । यह शिशु के जीवन का महत्वपूर्ण संस्कार होता है जब शिशु के दांत उगने लगते हैं और वह सामान्य आहार की ओर अग्रसर होता है । अन्नप्राशन संस्कार के माध्यम से शिशु के शुभ और उत्तम स्वास्थ्य की कामना की जाती है। भारतीय सनातन परंपरा के अनुसार, शिशु के प्रथम अन्न का सेवन धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है और इस अवसर पर विशेष पूजा की जाती है ताकि शिशु को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से उन्नति प्राप्त हो ।
अन्नप्राशन संस्कार कब करना चाहिए –
“पारस्कर गृह्यसूत्र” में वर्णन प्राप्त होता है "षष्ठेमासेऽन्नप्राशनम्" अर्थात् जब शिशु छह माह का हो जाये तब अन्नप्राशन संस्कार करना चाहिए । आचार्य सुश्रुत भी सुश्रुत संहिता में छह मास में ही अन्नप्राशन संस्कार करना चाहिए ऐसा उल्लेख करते हैं। एक अन्य आचार्य के मत का उल्लेख भी प्राप्त होता है वे वर्णन करते हैं कि बालक (लड़का) का अन्नप्राशन आठवें, दसवें तथा बारहवें माह में तथा बालिका का पांचवें, सातवें, नवें, ग्यारहवें माह में करना चाहिए । परन्तु आचार्य पारस्करजी जो छठवें माह में अन्नप्राशन संस्कार का उल्लेख करते हैं वही मत आज समाज में प्रचलित है। अन्नप्राशन संस्कार को सम्पादित करते समय गुरु शुक्रास्त तथा मलमास आदि का दोष नहीं लगता। 'व्यास स्मृति' में भी वर्णित है "षष्ठेमास्यन्नमश्नीयात्" अर्थात् छठवें माह में शिशु का अन्नप्राशन संस्कार करना चाहिए ।
Process
अन्नप्राशन संस्कार में प्रयोग होने वाली विधि:-
- स्वस्तिवाचन एवं शान्तिपाठ
- प्रतिज्ञा सङ्कल्प
- गणपति गौरी पूजन
- कलश स्थापन एवं वरुणादि देवताओं का पूजन
- पुण्याहवाचन एवं मन्त्रोच्चारण अभिषेक
- षोडशमातृका पूजन
- सप्तघृतमातृका पूजन
- आयुष्यमन्त्रपाठ
- सांकल्पिक नान्दीमुखश्राद्ध (आभ्युदयिकश्राद्ध)
- नवग्रह मण्डल पूजन
- अधिदेवता, प्रत्यधिदेवता आवाहन एवं पूजन
- पञ्चलोकपाल,दशदिक्पाल, वास्तु पुरुष आवाहन एवं पूजन
- रक्षाविधान आदि
- पञ्चभू संस्कार
- शुचिनामक अग्नि का स्थापन
- चारुपाक (पायस) बनावे हवन के लिए
- कुशकण्डिका
- आधार-आज्यभागसंज्ञक हवन
- घृताहुती
- चरु होम
- स्विष्टकृत आहुती
- संस्रवप्राशन विधि
- मार्जन विधि
- पवित्रप्रतिपत्ति
- पूर्णपात्र दान
- प्रणीता विमोक
- मार्जन
- बर्हिहोम
Benefits
अन्नप्राशन संस्कार पूजा के अनेक लाभ हैं जो शिशु के जीवन में सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। इसके लाभ निम्नलिखित हैं:-
- इस संस्कार के प्रभाव से गर्भ में होते हुए जो शिशु पर आहारादि के दोष का प्रभाव पडता है। वह दूर होता है।
- दोष से युक्त अन्नरस की समाप्ति के लिए होमपूर्वक(हवन) पवित्र हविष्यान्न, शहद एवं घी से मिश्रित खीर ,बालक या बालिका को ग्रहण कराया जाता है। जिससे शिशु का अन्तःकरण शुद्ध एवं पवित्र होता है।
- छठवें माह तक शिशु पूर्णत: माता के दूध पर ही निर्भर रहता है, अर्थात् माता के दूध से आवश्यक तत्व प्राप्त कर लेता है, परन्तु उसके बाद शरीर की वृद्धि के लिए मातृ का दुग्ध ही पर्याप्त नहीं होता, उसे ठोस आहार की आवश्यकता होती है , जिसके कारण वैदिक रीति से अन्नप्राशन कराया जाता है।
- अन्नप्राशन संस्कार से ओज(कान्ति) में वृद्धि होती है।
- अन्नप्राशन के पश्चात् शरीर में विकाश की गति में वृद्धि होती है ।
- अन्नप्राशन संस्कार में सर्वप्रथम हविष्यान्न,मधु ,पायस (खीर) आदि का ही उपयोग होता है, इनके आहार से शिशु का शरीर ,इंद्रियाँ एवं अन्तःकरण निर्मल एवं दोष रहित होते हैं।
- शिशु को सकारात्मक और शुभ आशीर्वाद की प्राप्ति।
- शिशु के आहार के प्रति शुद्धता और पवित्रता का संदेश।
- शिशु के स्वास्थ्य के लिए आध्यात्मिक सुरक्षा और आशीर्वाद।
Puja Samagri
- रोली, कलावा
- सिन्दूर, लवङ्ग
- इलाइची, सुपारी
- गङ्गाजल, गुलाबजल
- इत्र, शहद
- धूपबत्ती, रुई
- यज्ञोपवीत,
- देशी घी, कपूर
- माचिस,
- दोना बड़ा साइज,पञ्चमेवा
- गरी गोला
- चावल(छोटा वाला),
- सप्तमृत्तिका
- सर्वोषधि
- पीपल की कील, कुशाओं की तीन पिंजुली
- गूलर की डाल, विल्वफल
- तिल,चावल, मूंग का आज्य
- पीला कपड़ा सूती
- कुशा, शल्लकी का कांटा
हवन सामग्री एवं यज्ञपात्र :-
- काला तिल
- चावल
- कमलगट्टा
- हवन सामग्री, घी, गुग्गुल
- गुड़ (बूरा या शक्कर)
- हवन कुण्ड ताम्र का 10/10 इंच या 12/12 इंच
- नवग्रह समिधा
- हवन समिधा
- घृत पात्र
- कुशा
- वेदी निर्माण के लिए चौकी 2/2 का – 1
- दूध - 100ML
- दही - 50ML
- मिष्ठान्न आवश्यकतानुसार
- फल विभिन्न प्रकार ( आवश्यकतानुसार )
- दूर्वादल (घास ) - 1मुठ
- पान का पत्ता – 05
- पुष्प विभिन्न प्रकार - 1 kg
- पुष्पमाला - 03 ( विभिन्न प्रकार का)
- आम का पल्लव - 2
- तुलसी पत्र -7
- थाली - 2 , कटोरी - 5 ,लोटा - 2 , चम्मच - 2 आदि
- पानी वाला नारियल
- तांबा या पीतल का कलश ढक्कन सहित
- देवताओं के लिए वस्त्र - गमछा , धोती आदि
- बैठने हेतु दरी,चादर,आसन