About Puja
उपनयन शब्द की व्युत्पत्ति "उप '" उपसर्ग पूर्वक "नी '"धातु से 'ल्यु प्रत्यय करने पर होती है। उप अर्थात् =आचार्य के समक्ष (समीप), नयन अर्थात् बालक को अध्ययन के लिए ले जाना । उपनयन से हम यह समझ सकते हैं की अध्ययन के निमित्त बालक को गुरु के पास ले जाना । प्रत्येक बालक में विशिष्ट प्रतिभा होती है , अतः उस विशेष प्रतिभा को इस संस्नकार के द्वारा सुसंस्कृत किया जाता है। सुसंस्कृत करने के लिए किया गया संस्कार ही “उपनयन संस्कार” है । इस संस्कार के सम्पादित होने के पश्चात् बटुक बालक व्रत (उपवास) से युक्त हो जाता है एतदर्थ इस संस्कार को व्रतबन्ध के नाम से भी जाना जाता है । यज्ञोपवीत संस्कार के अनन्तर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णों का जीवन व्रतयुक्त हो जाता है, और यह व्रतयुक्त जीवन इस संस्कार के पश्चात् ही प्रारंभ होता है । यज्ञोपवीत संस्कार की महत्ता हमारे धर्मग्रंथों में वर्णित है ।
जिन जातकों का उपनयन संस्कार नहीं होता है उन्हें वेद तथा स्मृति प्रतिपादित कर्मों को संपन्न करने का आधिकार भी नहीं होता है। यज्ञोपवीत के विना देवकार्य, पितृकार्य के साथ ही विवाह, सन्ध्या, तर्पण आदि श्रुति-स्मृति प्रतिपादित कर्मों को नहीं किया जा सकता। उपनयन संस्कार से जातक को द्विजत्व की प्राप्ति होती है।
द्विज कौन है तो लिखते हैं -
मातुर्यदग्रे जायन्ते द्वितीयं मौञ्जिबन्धनात् ।
ब्राह्मणक्षत्रिय विशस्तस्मादेते द्विजाः स्मृताः ।।
माता के गर्भ से प्रथम उत्पत्ति एवं उपनयन संस्कार के द्वारा द्वितीय जन्म ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों को प्राप्त होता है इसलिए इन्हें द्विजत्व की संज्ञा से संबोधित किया गया है। मनुष्य जन्म के साथ ही तीन ऋणों से ऋणी हो जाता है, वे हैं- देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण,। इन ऋणत्रयों से मुक्ति, यज्ञोपवीत संस्कार के बिना संभव नहीं हो सकता । मनुष्य जब ब्रह्मचर्य का पालन करता है तो ऋषिऋण, विभिन्न देवताओं का पूजन कर देवऋण एवं गृहस्थधर्म का पालन धर्मपूर्वक कर सन्तानोत्पत्ति के द्वारा पितृऋण से मुक्त होता है।
यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ब्रह्मचर्य, पवित्रता, सद्आचरण आदि का पालन तथा इन्द्रियों पर निष्ठापूर्वक संयम करना चाहिए। यज्ञोपवीत संस्कार के बिना विवाह संस्कार भी संपन्न नहीं करना चाहिए परन्तु वर्तमान समाज में ऐसी मान्यता रूढ होती हुई दिख रही है की यह संस्कार केवल ब्राह्मणों का ही किया जाता है। लेकिन ऐसा नहीं है यज्ञोपवीत संस्कार द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) मात्र का यज्ञोपवीत करने को शास्त्र आदेशित करता है।
यज्ञोपवीत संस्कार कब करना चाहिए ?
आचार्य पारस्कर का कथन है की ब्राह्मणों को गर्भ से आठ वर्ष, क्षत्रियों को ग्यारह वर्ष तथा वैश्यों के लिए बारह वर्ष का समय यज्ञोपवीत संस्कार सम्पादित करनें के लिए उत्तम होता है। आचार्य मनु भी कहते हैं की
“गर्भाष्टमेऽब्देकुर्वीतब्राह्मणस्योपनायनम् ।
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः”।।
यदि किसी कारणवश इस समय में किसी जातक का यज्ञोपवीत न हुआ हो तो, ब्राह्मण का सोलह, क्षत्रिय का बाईस तथा वैश्य का चौबीस वर्ष तक यज्ञोपवीत कर सकते हैं । इस काल को यज्ञोपवीत का गौणकाल माना है। फिर भी यदि यज्ञोपवीत संस्कार का मुख्य और गौणकाल भी व्यतीत हो जाए तो अनादिष्ट प्रायश्चित क्रिया करके उसका यज्ञोपवीत संस्कार अवश्य करना चाहिए। यह शास्त्रोक्त नियम है।
आचार्य पारस्कर का कथन है –
अपनी कुलपरम्परा एवं कुलाचार के अनुसार भी नवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें और पन्द्रहवें वर्ष में भी उपनयन संस्कार किया जा सकता है।
Process
उपनयन संस्कार विधि:-
- स्वस्तिवाचन एवं शान्तिपाठ
- प्रतिज्ञा सङ्कल्प [प्रायश्चित्त गोदान, उपनयन सङ्कल्प, निष्क्रयद्रव्यदान]
- गणपति गौरी पूजन
- कलश स्थापन एवं वरुणादि देवताओं का पूजन।
- बोधायनीय पुण्याहवाचन
- षोडश मातृका पूजन
- सप्तघृत मातृका पूजन (वसोर्धारा पूजन)
- आयुष्य मन्त्र पाठ
- साङ्कल्पिक नान्दीमुख श्राद्ध (आभ्युदयिक श्राद्ध)
- नवग्रहमण्डल पूजन
- अधिदेवता, प्रत्यधिदेवता आवाहन एवं पूजन
- पञ्चलोकपाल, दशदिक्पाल, वास्तुपुरुष आवाहन एवं पूजन
- रक्षाविधान
- गायत्री जप हेतु ब्राह्मण वरण
- वटुक प्रवेश
- वटुक द्वारा गोनिष्क्रय द्रव्य सङ्कल्प (गोदान सङ्कल्प)
- वटुक का मुण्डन सङ्कल्प
- दाहिने भाग का केशसंस्कार
- पिछले भाग का केश संस्कार
- वायें भाग का केश संस्कार
Benefits
उपनयन संस्कार पूजा से अनेक लाभ होते हैं जो न केवल बच्चे के जीवन में बल्कि समग्र परिवार के जीवन में भी सुधार लाते हैं। इस संस्कार से मिलने वाले प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं:
- शुद्धता और ज्ञान :- यह संस्कार व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक शुद्धता प्रदान करता है और उसे जीवन में सही दिशा में चलने के लिए प्रेरित करता है।
- समाजिक जिम्मेदारी :- यह संस्कार व्यक्ति को समाज में एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में स्थापित करने में मदद करता है।
- धार्मिक और आस्थावान जीवन :- उपनयन संस्कार के माध्यम से व्यक्ति को धार्मिक रूप से जागरूक किया जाता है और उसे ईश्वर के प्रति आस्थावान बनाया जाता है।
- शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य :- इस पूजा में मंत्रोच्चारण और हवन के द्वारा शारीरिक और मानसिक शुद्धता की प्राप्ति होती है।
- दीर्घायु और समृद्धि :- यह संस्कार जीवन को दीर्घायु और समृद्ध बनाने में सहायक होता है, क्योंकि यह व्यक्ति के आंतरिक और बाह्य स्वास्थ्य को मजबूत करता है।
Puja Samagri
- रोली, अबीर, सिन्दूर, कपूर, धूप, चन्दन, भस्म, यज्ञोपवीत, मौली (कलावा), सुपारी, इलाइची, पेडा, चावल, पल्लव, शतावर, सर्वोषधी, लगोटी - 1, धोती - 8 नग, मार्कर/खड़िया, ऋतु फल विभिन्न प्रकार के , मिश्री - 200 ग्राम, हल्दी – 100ग्राम, सफेद कपडा सूती -2 मीटर, पंचमेवा -1 पाव, पंचपात्र पूरा सेट -2, गंगाजल - 1ली, सप्तधान्य -50 ग्रा, पलाश दण्ड - 1 नग, मृगचर्म वल्कल के लिए, छाता, दर्पण,कंघी ,काजल, तेल सुगन्धित, धोती -8 नग, मुग्जमेखला (मूँजकी रस्सी) - 10 हाथ की, मसूर की दाल - 250 ग्रा, मूंग की दाल -250 छिलके वालीलाल, चने की दाल -500 ग्रा, पञ्चामृत (दूध, दही, घी, मधु, चीनी)
हवन सामग्री एवं यज्ञपात्र :-
- हवन सामग्री - 2 किलो, आज्य स्थाली (घृतपात्र) - 3 नग, पूर्णपात्र - 3 नग, लकड़ी आम की -5 किलो, कालातिल - 250 ग्रा, गाय का घी - 250 ग्रा, समिधा (पलाश की) -11 नग, दातुन गूलर की - 1 नग, छड़ी - 1 नग, पानपत्ता-05, दो बडे गमछे (बाधने के लिए), पीला कपड़ा -5 मीटर, पीढ़ा - 1 नग, स्लेट या पाटी - 1 नग, कांसे की थाली - 1नग, फूलमाला - 11 नग, विभिन्नप्रकार के पुष्प - 2 kg, तुलसी, दूर्वा, विल्वपत्र, साड़ी (सेट) - 2 नग, सुहाग सामग्री, फुटकर सिक्के, अष्टभाण्ड - 8 गिलास, मार्जनपात्र लोटा -5, ईट या हवन कुंड, ऋतु फल विभिन्न प्रकार के, बालू - 1 परात, यदि हवन कुंड है तो आधा परात बालू, पलास का पत्तल -5 नग, दोना - 2 गड्डी, गुड़ - 1kg, कलश मिट्टी का 2, दही पात्र 1, सकोरा – 15, कुशा - 1 मुट्ठा, चादर -1, नारियल पानी वाला - 3 नग, गरी का गोला- 2 नग, लाल कपड़ा सूती - 1 मीटर, वरण सामग्री, धोती- ब्राह्मण के संख्यानुसार, गमछा, आसन, तांबा या पीतल का कलश ढक्कन सहित, उपला/कण्डा -3 किलो, मुण्डन हेतु नाऊ की व्यवस्था, वटुक के लिए धोती आदि वस्त्र या मनोनुकूल वस्त्र।
आवश्यकतानुसार सामग्री में न्यूनाधिक किया जा सकता है।